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12 - Преданное служение
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перевод
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деванагари
12.1
अर्जुन उवाच
.
एवं सततयुक्ता ये भक्तास तवां पर्युपासते
.
ये चाप्य अक्षरम अव्यक्तं तेषां के यॊगवित्तमाः
12.2
शरीभगवान उवाच
.
मय्य आवेश्य मनॊ ये मां नित्ययुक्ता उपासते
.
शरद्धया परयॊपेतास ते मे युक्ततमा मताः
12.3-4
ये तव अक्षरम अनिर्देश्यम अव्यक्तं पर्युपासते
.
सर्वत्रगम अचिन्त्यं च कूटस्थम अचलं धरुवम
.
संनियम्येन्द्रियग्रामं सर्वत्र समबुद्धयः
.
ते पराप्नुवन्ति माम एव सर्वभूतहिते रताः
12.5
कलेशॊ ऽधिकतरस तेषाम अव्यक्तासक्तचेतसाम
.
अव्यक्ता हि गतिर दुःखं देहवद्भिर अवाप्यते
12.6-7
ये तु सर्वाणि कर्माणि मयि संन्यस्य मत्पराः
.
अनन्येनैव यॊगेन मां धयायन्त उपासते
.
तेषाम अहं समुद्धर्ता मृत्युसंसारसागरात
.
भवामि नचिरात पार्थ मय्य आवेशितचेतसाम
12.8
मय्य एव मन आधत्स्व मयि बुद्धिं निवेशय
.
निवसिष्यसि मय्य एव अत ऊर्ध्वं न संशयः
12.9
अथ चित्तं समाधातुं न शक्नॊषि मयि सथिरम
.
अभ्यासयॊगेन ततॊ माम इच्छाप्तुं धनंजय
12.10
अभ्यासे ऽपय असमर्थॊ ऽसि मत्कर्मपरमॊ भव
.
मदर्थम अपि कर्माणि कुर्वन सिद्धिम अवाप्स्यसि
12.11
अथैतद अप्य अशक्तॊ ऽसि कर्तुं मद्यॊगम आश्रितः
.
सर्वकर्मफलत्यागं ततः कुरु यतात्मवान
12.12
शरेयॊ हि जञानम अभ्यासाज जञानाद धयानं विशिष्यते
.
धयानात कर्मफलत्यागस तयागाच छान्तिर अनन्तरम
12.13-14
अद्वेष्टा सर्वभूतानां मैत्रः करुण एव च
.
निर्ममॊ निरहंकारः समदुःखसुखः कषमी
.
संतुष्टः सततं यॊगी यतात्मा दृढनिश्चयः
.
मय्य अर्पितमनॊबुद्धिर यॊ मद्भक्तः स मे परियः
12.15
यस्मान नॊद्विजते लॊकॊ लॊकान नॊद्विजते च यः
.
हर्षामर्षभयॊद्वेगैर मुक्तॊ यः स च मे परियः
12.16
अनपेक्षः शुचिर दक्ष उदासीनॊ गतव्यथः
.
सर्वारम्भपरित्यागी यॊ मद्भक्तः स मे परियः
12.17
यॊ न हृष्यति न दवेष्टि न शॊचति न काङ्क्षति
.
शुभाशुभपरित्यागी भक्तिमान यः स मे परियः
12.18-19
समः शत्रौ च मित्रे च तथा मानापमानयॊः
.
शीतॊष्णसुखदुःखेषु समः सङ्गविवर्जितः
12.
तुल्यनिन्दास्तुतिर मौनी संतुष्टॊ येन केन चित
.
अनिकेतः सथिरमतिर भक्तिमान मे परियॊ नरः
12.20
ये तु धर्म्यामृतम इदं यथॊक्तं पर्युपासते
.
शरद्दधाना मत्परमा भक्तास ते ऽतीव मे परियाः
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